Sunday, October 17, 2010

उस दिन जब मेरे चरणे में

उस दिन जब मेरे चरणे में,

प्रेम पुष्प, गये अर्पित कर,
देख तुम्हारा प्रेम और अखण्ड श्रद्धा
हूक उठी मन मे,
आयी मेरी आँखे भर,
हर्ष हुआ मन मे असीम
भाग्य पर इतरायी
परन्तु सोचा,
पुष्प ये पवित्र प्रेम के
जो तुमने किये अर्पित
बना दिया देवी, मानवी वो
योग्य हूँ क्या मै इनके,
कहाँ  ये धूल भरे पाँव
कहाँ ये पुष्प प्रेम के?
कहाँ  श्रद्धा भरा मन तुम्हारा ?
और कहाँ मेरा तन ?
पाँव स्वंय हट गये पीछे

फिर एक बार आया मन मे,
उठा लूँ ये जीवनाधार
लगा लूँ सीने से
चूमकर कर इन्हे कर लू
उद्धार इस देह का,
और झुक गयी उठाने के लिए,
परन्तु जागी चेतना मन की
“मै क्या करने जा रही थी
आज नही तो कल,
भेद अवश्य खुलेगा,
तब क्या रहेगा मान मेरा ?
क्या बचेगा शेष
प्रेम उनके मन मे ,
टूटेगा दपर्ण मन का,

“पुष्प न उठाउंगी ,
तो उनको होगा क्या संताप नही ?“

“परन्तु न होगा बढकर उससे,
तो तब होगा, जब जानेगें सत्य,
आज बिखरेगा स्वप्न केवल,
कल बिखरेगा जीवन,
ये अपराध भी क्या प्रभु क्षमा कर पायेंगे“

तब क्या करती मै
झुकी हुई थी,
समझ सकती थी
तुम्हारे मन की भावनाओ को,
उस विचार चक्र को
जो तुम्हारे मन मे चल रहा था,
तुम्हे आभास न हो मेरी स्थिति का,
मेरे मन को न तुम जान जाओं
झुकी थी पुष्प उठाने, लेकिन
बहाना कर गयी,
और करती भी क्या?

तुम्हे मुडकर देखने का
सौभाग्य प्राप्त करती लेकिन
न किया,
इससे हो सकता था
प्रकट तुम पर, प्रेम
मेरे मन का, श्रद्धा मेरे मन की,
जो चाहते हुए भी
न दे सकी, न पा सकी
और मै बस
चलती रही चलती रही

2 comments:

  1. सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

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  2. बहुत ही बढ़िया
    असमंजन, दुनिया,
    धर्मसंकट और विवशता का दुर्भाग्य...

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